20.6.08

आप साहित्यकार किसे कहते हैं????????

बहुत स्थानों/ संचार माध्यमो में बड़े जोर की बहस छिडी हुई है ''ब्लागर बनाम साहित्यकार''.या ''क्या ब्लाग्स में जो इन दिनों लिखा जा रहा है वे यूँ ही फालतू की भडास है या इसमे कुछ स्तरीय भी है,.इन्हे साहित्य कहना साहित्य की तौहीनी है,वगैरह वगैरह...........विषय ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि जरा सत्य तथ्य को एक बार अपनी नजरों से भी खंगाल कर देखा जाए. ब्लाग्स वर्त्तमान संचार क्रांति का वह अनुपन वरदान है,जहाँ हम अपनी बात सहज ही कईयों तक पहुँचा सकते हैं और दूसरों की राय जान सकते हैं.जहाँ एक ओर पठन पाठन से जुड़े लोगों के लिए यह टानिक बन उपयुक्त मानसिक तुष्टता उपलब्ध कराने का जरिया है वहीँ मनोरंजन का सुगम माध्यम भी. कुछ वर्षों पहले तक यह महज कल्पना करने वाली बात थी कि एक दिन ऐसा आएगा जब अपनी मातृभाषा का उपयोग इतनी सहजता से इस माध्यम के द्वारा हम कर पाएंगे.पर कहते हैं न कोई भी वरदान हो वह उसके उपयोगकर्ता के उपयोग पर ही अच्छा या बुरा प्रभाव देती है.शक्ति सामर्थ्य यदि सही हाथों में जाए तो वह वरदान बन जाती है नही तो वह किसी अभिशाप से कम नही.वही हाल हिन्दी ब्लागिंग का भी है.कुछ सचमुच ही केवल भडास केन्द्र हैं,कुछ मध्यम कोटि के अभिव्यक्ति का माध्यम जहाँ कुछ क्षण को ठहरा जा सकता है,और कुछ, जो कुछ भी रच रहे हैं वह किसी भी लिहाज से उच्चकोटि के साहित्य से किसी भी मामले में कमतर नही.हमने साहित्य की जो परिभाषा ,अवधारणा पढ़ी सुनी थी उसके अनुसार गद्य,पद्य,कथा उपन्यास,जीवनी चाहे किसी भी भी विधा का अनुसरण कर रचित वह रचना जो मन को सहज ही छू लेने वाली हो,बोधगम्य और ग्राह्य हो तथा किसी न किसी रूप में सकारात्मक रूप से जीवन को प्रभावित कर पाने का सामर्थ्य रखती हो साहित्य है.और यह जितना ही गहन और व्यापक रूप में प्रभावशाली होगा उतना ही दीर्घजीवी या कालजयी होगा.इस कसौटी पर कसकर यदि हम समकालीन हिन्दी ब्लोगिंग को देखेंगे तो परिणाम काफ़ी उत्साहजनक हैं.अब प्रतिक्रिया सांख्यिकी पर न जायें,अधिकाँश लोग हैं जो केवल पढने में अभिरुचि रखते हैं,टिप्पणियां देने में नही.इस से रचना या रचनाकार विशेष का महत्व कम नही हो जाता.और पाठक बेवकूफ भी नही होता उसे ठीक पता है कि रचना और रचनाकार का बौद्धिक/साहित्यिक स्तर क्या है.और उसी अनुसार अपना पाठ्य चयन कर लेता है.कुछ ब्लाग/विषय सनसनीखेज सामग्रियां परोस उबलते पानी के बुलबुले से क्षणिक प्रसिद्धि भले पा जायें पर इससे सम्मानजनक स्तर नही पा सकते. दीर्घजीवी नही हो सकते.एक समय था जब रचना प्रकाशन का माध्यम केवल प्रिंट मिडिया ही हुआ करता था,जिसे साहित्य कहा जाता था.पर हम सब जानते हैं कि उन उच्चस्तरीय रचनाकारों को भी रचना प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के आगे पीछे घूम कितने पापड़ बेलने पड़ते थे.और कई बार रोजी रोटी के जुगाड़ का चक्कर उन्हें प्रकाशकों की बिकाऊ सामग्रियों के लेखन को मजबूर करती थीं.उस दौर में भी असंख्य कामोत्तेजक सामग्रियां साहित्य के नाम पर लिखी छापी जातीं थीं और खूब बिकती भी थीं,तो इसीसे वह कालजयी साहित्य की श्रेणी में तो नही आ गयीं. इसलिए मेरा मत है की लेखन को सर्वोच्च दायित्व मानकर व्यक्ति समाज देश और दुनिया के लिए जो लिखेगा या लिखा जाता है,लेखन निसंदेह नैसर्गिक साहित्य ही है और रचनाकार साहित्यकार.बिना विवाद में फंसे अपने धर्म का सतत पालन ही हमारा कर्तब्य होना चाहिए,तभी हम आंशिक रूप से अपनी मातृभाषा के क़र्ज़ का एकांश मोल चुका पाएंगे.

12 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

साहित्य में दीर्घजीविता का घटक ही महत्वपूर्ण है मेरे अनुसार।
और अगर ब्लॉग वह तत्व - उत्कृष्टता; रखता है तो साहित्य के महन्तों का इन्द्रासन डोलना चाहिये।

रंजू भाटिया said...

सही लिखा है जी आपने सहमत हूँ आपके लिखे से

art said...

satya hai....

विजय गौड़ said...

तकनीक के बदलने के साथ साथ रचनाओं के प्रकाशन की सहजता ने ब्लाग को जन्म दिया है. लिहाजा यह जरूर हुआ है कि साहित्य कला के स्थापित मानदण्ड के मुताबिक ब्लाग पर प्रकाशित हो रही रचनाओं मे एक तरह का अनुशासन बेशक न दिखाये दे पर यह तो अपने आप में सच है कि तकनीक की विशिष्टता की वजह से ब्लाग पर प्रकाशित रचनायें लम्बे समय तक उपलब्ध रहेंगी. और अपनी प्रव्रत्ति में ये रचनायें भी साहित्य ही है, हां एक तरह की तात्कालिकता इनका जो गुण बनकर उभर रही है, उसमें अनुभव की सघनता कई बार अखर सकती है पर इतने भर से उसकी उपस्थिति से इंकार करना थोडा जल्दबाजी ही कही जा सकती है.क्योंकि हर ब्लागर अपनी विशिष्टताओं के साथ तो दिखायी दे ही रहा है और उसकी रचनात्मकता का विकास भी उसके ब्लाग पर प्रकाशित हुई रचनाओं को देख कर लगाया जा सकता है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सुलेख के लिये आपका आभार व बधाई !
- लावण्या

Shiv said...

बहुत बढ़िया विश्लेषण है. बहुत सधी हुई भाषा में सीधी बात.

साहित्य का अपना स्थान है जिसे कोई नकार नहीं सकता. ब्लॉग पर लिखने वाले कितने ही लोगों ने लिखने की शैली साहित्य से ही सीखी होगी. ब्लॉग रहेगा, साहित्य रहेगा, साहित्यकार रहेगा. बदलते समय में हर विधा का अपना महत्व है. और रहेगा. किसी भी इध को सीधे-सीधे खारिज कर देना ठीक बात नहीं होगी. साहित्यकारों को समझाने की जरूरत है और साथ में ब्लॉगर को भी.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

मेरे एक मित्र ने मजाक में कहा था कि ब्लॉगिंग का चस्का कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा नाई को देखकर हजामत बढ़ आने की कहावत में होता है। मतलब इन्टरनेट की सैर करते-करते भाई लोग मुफ़्त में कवि और लेखक बन जाने और प्रत्यक्ष रूप से पाठकों की दाद पा जाने का अवसर हाथ लगने पर झम्म से साहित्य की दुनिया में कूद पड़ते हैं।
वैसे देखा जाय तो इस बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। इस सर्वसुलभ साधन का अकुशल प्रयोग करने वालों के होते हुए भी इसके प्रसार और प्रभाव को अब रोका नहीं जा सकता है। और न ही दोयम दर्जा देकर इसके उत्साह को कम किया जा सकता है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी अमर रचना किसी समालोचक या मूर्धन्य विद्वान को लक्ष्य करके उसकी ‘रिकॉग्नीशन ’ पाने के लिए नहीं लिखी थी, बल्कि 'स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा' का भाव ही प्रधान था। लेकिन उनके शब्दों में भाव और लालित्य की वह अविरल धारा फूट निकली कि सारे साहित्यकार पीछे छूट गये।

pallavi trivedi said...

yadi premchand ya nirala apni rachnaayen blog par likhte to kya we saahitykaar nahi kahlate?

Udan Tashtari said...

ज्ञानदत्त जी हमारी बात कह गये..बस, उसी खेमे में हमें देखें.

डॉ .अनुराग said...

हैरानी की बात है साहित्य ओर ब्लोगिंग का हल्ला भी वो मचा रहे है जो साहित्य में है या दिखना चाहते है ..मै कहता हूँ एक इंसान के मन की बात अगर लाखो लोग पढ़े ओर उससे जुड़े तो क्या वो साहित्य नही होगा ?साहित्य क्या है ?ओर अब आजकल मै हंस,नया ज्ञानोदय ,कथादेश पढता हूँ....क्या लेवल रहा है लिखने वालो का ....पर यहाँ हमारी बहस का मुद्दा दूसरा है...क्या फायदा उस साहित्य का जो किताबो में बंद होकर रह जाये......लिखने दो यार लोगो को.....मन की बात कहने को लफ्जों को लिबास नही पहनाया जाता....

Manjit Thakur said...

''ब्लागर बनाम साहित्यकार''.या ''क्या ब्लाग्स में जो इन दिनों लिखा जा रहा है वे यूँ ही फालतू की भडास है या इसमे कुछ स्तरीय भी है,.इन्हे साहित्य कहना साहित्य की तौहीनी है,वगैरह वगैरह..... रंजना जी अगर साहित्य की विवेचना की जाए शब्द की जो सहित है वह साहित्य है। यानी रहित नहीं हो जो जिसमें कुछ भी कंटेंट है- वह साहित्य होना चाहिए। बिलकुल निजी परिभाषा है। इस आधार पर ब्लॉग्स पर लिखा जा रहा है वह सरोकारों से विलग नहीं है। इसके बरअक्स ये भी कहा जा सकता है कि ब्लॉग्स ने अभिव्यक्ति को संपादकीय-सांमती जकड़न से निकाल कर एक विस्तृत और उन्मुक्त आकाश प्रदान किया है।
साहित्य का वर्गीकरण अपने आप में गलत है। वर्गीकरण के आधार ही नजरिए पर आधारित है। कल को तमाम नैतिकता के मापदंडो को अनैतिक करार दे दिया जाए..क्यों कि दुनिया में महज बदलाव ही शाश्वत है.. तो मठाधीशों के बनाए मापदंडों का क्या होगा।

बहरहाल, आप मेरे गृहराज्य से हैं। मै देवघर का हूं। पत्रकार टाईप की चीज़ हूं। फिलहाल डीडी न्यूज़ में हूं और पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं। अच्छा लगा..। खासकर यह बात छू गई कि ाप पत्नी, मां,और सबसे बढ़कर नारी है..। लिखते रहिए.. हम पढ़ने के लिए तैयार हैं। सादर गुस्ताख़

Smart Indian said...

गुड, आश्चर्य नहीं कि आपके इस लेख के लिखे जाने के ढाई साल बाद भी आजतक वही बहस जारी है। सच तो यही है कि जो अच्छा है वह टिकेगा, माध्यम जो भी हो।